Chandra: मिथिला के कलंकित चाँद उत्सव के पीछे छिपी अनसुनी कहानियाँ

मिथिला के कलंकित चाँद उत्सव के पीछे छिपी अनसुनी कहानियाँ

Chandra: मिथिला के कलंकित चाँद उत्सव के पीछे छिपी अनसुनी कहानियाँ

मिथिला के चाँद उत्सव को लेकर समाज में कई तरह की भ्रांतियाँ और अनसुनी कहानियाँ प्रचलित हैं। यह लेख उन सभी के लिए है जो मिथिला की सांस्कृतिक परंपराओं में रुचि रखते हैं और इस त्योहार की वास्तविकता जानना चाहते हैं।

हम इस लेख में पहले मिथिला में चाँद उत्सव की वास्तविक उत्पत्ति और ऐतिहासिक जड़ों पर नज़र डालेंगे। दूसरा, हम उन भ्रांतियों और अंधविश्वासों की सच्चाई उजागर करेंगे जो इस उत्सव को कलंकित बनाती हैं। तीसरा, हम देखेंगे कि आधुनिक समय में यह त्योहार कैसे बदल रहा है और समाज पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है।

मिथिला में चाँद उत्सव का ऐतिहासिक महत्व और उत्पत्ति

Chandra: मिथिला के कलंकित चाँद उत्सव के पीछे छिपी अनसुनी कहानियाँ

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प्राचीन काल से चली आ रही परंपराओं की जड़ें

मिथिला की धरती पर चाँद उत्सव की शुरुआत वैदिक काल से ही मानी जाती है। स्थानीय पुरातत्व खोजों से पता चलता है कि यहाँ के लोग चंद्र कैलेंडर के अनुसार अपने त्योहार मनाते थे। गाँव के बुजुर्ग बताते हैं कि उनके पूर्वज पूर्णिमा की रात में विशेष अनुष्ठान करते थे, जिसमें चाँद को अर्घ्य देकर परिवार की खुशहाली की कामना करते थे।

प्राचीन मिथिला में चाँद को देवता माना जाता था। लोग मानते थे कि चंद्रमा की किरणें फसलों को पोषण देती हैं और मानसिक शांति प्रदान करती हैं। महिलाएं चाँदनी रात में एक साथ मिलकर गीत गाती थीं, जिन्हें ‘चंद्र गीत’ कहते थे। ये गीत पीढ़ी दर पीढ़ी चलते आए हैं और आज भी कई परिवारों में गाए जाते हैं।

मिथिला की पुरानी पांडुलिपियों में चाँद पूजा के संदर्भ मिलते हैं। इन ग्रंथों के अनुसार, चाँद उत्सव का आयोजन न केवल धार्मिक कारणों से होता था, बल्कि इसका सामाजिक महत्व भी था। यह समुदाय के लोगों को एक साथ लाने का माध्यम था।

राजा जनक के समय से जुड़े धार्मिक अनुष्ठान

राजा जनक के शासनकाल में मिथिला एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक केंद्र था। इस समय चाँद उत्सव को राजकीय संरक्षण प्राप्त था। राजा जनक स्वयं इस उत्सव में भाग लेते थे और प्रजा के साथ चाँद की उपासना करते थे। उनके दरबारी कवि और संगीतकार विशेष रागों की रचना करते थे, जो चाँद की महिमा का गुणगान करते थे।

जनकपुर के मंदिरों में आज भी वे शिलालेख मौजूद हैं, जिनमें चाँद उत्सव के दौरान किए जाने वाले विशेष अनुष्ठानों का वर्णन है। इन अनुष्ठानों में गंगा जल से चाँद का अभिषेक, चांदी के बर्तनों में दूध और चावल का भोग, और रात भर जागरण शामिल था।

राजा जनक के समय में यह उत्सव केवल एक दिन का नहीं था, बल्कि पूरे एक सप्ताह तक चलता था। इस दौरान विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते थे। विद्वान लोग चाँद से जुड़ी कहानियों और श्लोकों का पाठ करते थे। यह परंपरा आज भी कुछ पुराने परिवारों में जीवित है।

खगोलीय घटनाओं से जुड़ा वैज्ञानिक आधार

मिथिला के ज्योतिषियों और खगोल शास्त्रियों ने चाँद उत्सव का समय निर्धारण करने के लिए विस्तृत गणनाएं की थीं। वे चंद्र ग्रहण, पूर्णिमा की तिथि, और नक्षत्रों की स्थिति का अध्ययन करके सबसे उपयुक्त दिन चुनते थे। इन गणनाओं के आधार पर ही उत्सव की तारीख तय होती थी।

प्राचीन मिथिला के खगोलविदों का मानना था कि चंद्रमा की विभिन्न कलाओं का मानव मन पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। पूर्णिमा की रात में चाँद की पूर्ण आभा देखकर मन में सकारात्मक भावनाएं जगती हैं। इसलिए इस दिन सामूहिक उत्सव मनाना फायदेमंद माना जाता था।

आधुनिक विज्ञान भी इस बात की पुष्टि करता है कि चंद्रमा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति न केवल समुद्री ज्वार-भाटा को प्रभावित करती है, बल्कि मानव शरीर के जल तत्व पर भी असर डालती है। मिथिला के पूर्वजों ने इस वैज्ञानिक तथ्य को बिना आधुनिक उपकरणों के समझ लिया था और इसी आधार पर चाँद उत्सव की परंपरा शुरू की थी।

समाज में फैली भ्रांतियों और अंधविश्वासों की सच्चाई

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कलंकित चाँद से जुड़े डर और मिथक

मिथिला की सांस्कृतिक परंपराओं में कलंकित चाँद के साथ कई डरावनी कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। लोग मानते हैं कि चाँद ग्रहण के दौरान राहु और केतु चाँद को निगल जाते हैं, जिससे अशुभ शक्तियाँ सक्रिय हो जाती हैं। गर्भवती महिलाओं के लिए विशेष निषेध बनाए गए हैं – उन्हें घर से बाहर निकलने या कोई काम करने की मनाही है।

पुराने समय में लोग यह भी मानते थे कि ग्रहण के दौरान पकाया गया भोजन जहरीला हो जाता है। इसलिए ग्रहण से पहले ही सब कुछ फेंक देते थे। बच्चों को डराया जाता था कि वे ग्रहण के दौरान बाहर निकले तो उन पर बुरा प्रभाव पड़ेगा।

ज्योतिषीय मान्यताओं का वास्तविक आधार

ज्योतिषशास्त्र में ग्रहण को एक खगोलीय घटना के रूप में देखा जाता है, लेकिन इसे मानवीय जीवन पर प्रभाव डालने वाली शक्ति भी माना जाता है। पंडित-पुरोहित राहु-केतु की कथाओं के माध्यम से समझाते हैं कि यह समय ध्यान और आध्यात्म के लिए उपयुक्त है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो ग्रहण केवल सूर्य, पृथ्वी और चाँद की स्थिति का खेल है। कोई अलौकिक शक्ति इसमें शामिल नहीं है। फिर भी मिथिला में अनेक परिवार आज भी ज्योतिषियों की सलाह पर ग्रहण के दौरान विशेष उपाय करते हैं।

सामाजिक रूढ़िवादिता के कारण उत्पन्न समस्याएं

ग्रहण को लेकर फैली भ्रांतियों ने समाज में कई समस्याओं को जन्म दिया है। महिलाओं पर लगे प्रतिबंध उनकी स्वतंत्रता को सीमित करते हैं। गर्भवती महिलाएं अनावश्यक तनाव झेलती हैं क्योंकि परिवार के बुजुर्ग उन्हें डराते रहते हैं।

आर्थिक नुकसान भी होता है क्योंकि व्यापारी दुकानें बंद कर देते हैं और किसान खेती का काम रोक देते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में भी समस्या आती है जब स्कूल-कॉलेज छुट्टी कर देते हैं। बच्चों के मन में अनावश्यक डर बैठ जाता है जो उनके मानसिक विकास को प्रभावित करता है।

वैज्ञानिक सोच बनाम पारंपरिक विश्वास

मिथिला के शिक्षित युवा अब ग्रहण को वैज्ञानिक नजरिए से देखने लगे हैं। वे समझते हैं कि यह प्राकृतिक घटना है जिसका मानव जीवन पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता। स्कूलों में खगोल विज्ञान की शिक्षा के कारण बच्चे भी तार्किक सोच विकसित कर रहे हैं।

पारंपरिक विश्वासवैज्ञानिक तथ्य
राहु-केतु चाँद को खाते हैंसूर्य, पृथ्वी, चाँद की सीधी रेखा
अशुभ समयप्राकृतिक खगोलीय घटना
भोजन जहरीला हो जाता हैभोजन पर कोई प्रभाव नहीं
गर्भवती महिलाओं के लिए हानिकारककोई वैज्ञानिक आधार नहीं

पुरानी पीढ़ी अभी भी पारंपरिक मान्यताओं को मानती है, जबकि नई पीढ़ी संतुलन बनाने की कोशिश करती है। वे त्योहार मनाते हैं लेकिन अंधविश्वासों में नहीं फंसते।

उत्सव मनाने के पारंपरिक तरीके और रीति-रिवाज

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घरों में किए जाने वाले विशेष अनुष्ठान

मिथिला के हर घर में चाँद उत्सव की तैयारी पूर्णिमा से कई दिन पहले शुरू हो जाती है। घर की बुजुर्ग महिलाएं सबसे पहले घर के मुख्य द्वार पर अल्पना बनाती हैं जिसमें चंद्र रूपी आकृतियां होती हैं। दीवारों पर गेरू और चूने से विशेष चित्रकारी की जाती है जो चंद्रमा की विभिन्न कलाओं को दर्शाती है।

पूजा के लिए तांबे के विशेष बर्तनों में चावल, दूध और खजूर से बने पकवान तैयार किए जाते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हर घर में एक विशेष दीया जलाया जाता है जो पूरी रात नहीं बुझना चाहिए। यह दीया नीम के तेल से जलाया जाता है और इसमें केसर मिलाया जाता है।

घर के आंगन में रंगोली बनाई जाती है जिसके केंद्र में चंद्रमा का चित्र होता है। पुराने समय से चली आ रही परंपरा के अनुसार घर की सबसे बड़ी महिला पूरे परिवार के साथ चंद्र देव का आवाहन करती है।

सामुदायिक स्तर पर आयोजित कार्यक्रम

गांव के मध्य स्थित मंदिर या चौराहे पर सामूहिक पूजा का आयोजन होता है। यहाँ पूरे गांव के लोग एकत्रित होकर सामूहिक भजन-कीर्तन करते हैं। विशेष रूप से चंद्र देव से संबंधित मैथिली गीत गाए जाते हैं जो पीढ़ियों से चले आ रहे हैं।

सामुदायिक स्तर पर आयोजित होने वाले नृत्य कार्यक्रम इस उत्सव की जान हैं। युवा लड़के-लड़कियां पारंपरिक वेशभूषा में झिझिया नृत्य करते हैं। इस नृत्य में विशेष मुद्राएं होती हैं जो चंद्रमा की विभिन्न अवस्थाओं को दिखाती हैं।

गांव के बुजुर्ग लोग कहानी-किस्सों के माध्यम से युवाओं को उत्सव का महत्व समझाते हैं। रात भर चलने वाले इस कार्यक्रम में विभिन्न प्रतियोगिताएं भी आयोजित होती हैं जैसे सबसे सुंदर अल्पना, बेहतरीन भजन गायन और पारंपरिक नृत्य।

महिलाओं की विशेष भूमिका और व्रत-उपवास

मिथिला में चाँद उत्सव महिलाओं का त्योहार माना जाता है। विवाहित महिलाएं अपने पति की लंबी आयु के लिए निर्जला व्रत रखती हैं। यह व्रत सूर्योदय से चंद्रोदय तक चलता है और इस दौरान वे पानी तक नहीं पीतीं।

कुंवारी लड़कियां अच्छे वर की प्राप्ति के लिए विशेष पूजा करती हैं। वे अपने हाथों में मेहंदी लगाकर, नए कपड़े पहनकर सामूहिक रूप से गीत गाती हैं। इन गीतों में चंद्रमा से अच्छे जीवनसाथी की कामना की जाती है।

सास-बहू मिलकर घर की सफाई करती हैं और खास तरीके से घर को सजाती हैं। महिलाएं सुबह से ही तरह-तरह के पकवान बनाना शुरू कर देती हैं जैसे गुड़ से बने लड्डू, चावल की खीर और तिल के लड्डू।

व्रत खोलने की रस्म भी बेहद खास होती है। महिलाएं चंद्रमा को अर्घ्य देकर ही अपना व्रत तोड़ती हैं। इस समय पूरा परिवार एक साथ बैठकर प्रसाद ग्रहण करता है।

आधुनिक समय में बदलते दृष्टिकोण और चुनौतियां

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नई पीढ़ी का बदलता नजरिया

आज की युवा पीढ़ी मिथिला के चाँद उत्सव को लेकर एक अलग सोच रखती है। वे पारंपरिक मान्यताओं को तर्क और विज्ञान की कसौटी पर परखते हैं। इंटरनेट और शिक्षा के बढ़ते प्रसार से युवा लड़के-लड़कियां अब सवाल पूछते हैं कि क्यों कुछ पारंपरिक प्रथाएं महिलाओं के लिए प्रतिबंधात्मक हैं।

कॉलेज और विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले छात्र अब इन उत्सवों में छिपे लैंगिक भेदभाव को समझने लगे हैं। वे चाहते हैं कि त्योहार मनाए जाएं लेकिन उनमें समानता हो। बहुत से युवा अब अपने घरों में बुजुर्गों से इन परंपराओं के पीछे के कारणों के बारे में पूछते हैं और जब उन्हें संतोषजनक जवाब नहीं मिलते तो वे अपने तरीके से उत्सव मनाने का फैसला करते हैं।

शहरीकरण का पारंपरिक उत्सवों पर प्रभाव

शहरों में बसे मिथिलांचल के लोगों के लिए पारंपरिक चाँद उत्सव मनाना चुनौतीपूर्ण हो गया है। अपार्टमेंट की छतों पर चाँद देखना और पूरे रीति-रिवाज के साथ उत्सव मनाना मुश्किल है। कई परिवारों को लगता है कि वे अपनी संस्कृति से कट रहे हैं।

शहरी जीवन की व्यस्तता में लोगों के पास समय की कमी है। नौकरीपेशा महिलाओं के लिए दिन भर का व्रत रखना और रात में चाँद की प्रतीक्षा करना कठिन हो जाता है। बहुत से शहरी परिवार अब इन उत्सवों को सिर्फ नाम मात्र के लिए मनाते हैं या फिर छोड़ ही देते हैं।

नए वातावरण में पारंपरिक सामग्री मिलना भी एक समस्या है। गांव में जो चीजें आसानी से मिल जाती थीं, शहरों में वे महंगी या दुर्लभ हो गई हैं।

सामाजिक मीडिया के कारण बढ़ती जागरूकता

फेसबुक, इंस्टाग्राम और व्हाट्सऐप के जरिए लोग अब इन उत्सवों की सच्चाई को समझने लगे हैं। सामाजिक मीडिया पर जब कोई व्यक्ति इन परंपराओं के बारे में सवाल उठाता है तो बहस छिड़ जाती है। इससे लोगों को अलग-अलग दृष्टिकोण देखने को मिलते हैं।

महिला अधिकारों के बारे में जागरूकता फैलाने वाले पेज और ग्रुप इन उत्सवों में छिपे भेदभाव को उजागर करते हैं। युवा लड़कियां अब इन प्लेटफॉर्म के जरिए अपनी आवाज उठाती हैं और अपने अनुभव साझा करती हैं।

डिजिटल प्लेटफॉर्म पर मिथिला की संस्कृति को लेकर बहुत सारी जानकारी उपलब्ध है, जिससे लोग इन परंपराओं के मूल स्वरूप और बदलाव के इतिहास को समझ पा रहे हैं।

परंपरा और प्रगति के बीच संतुलन की आवश्यकता

मिथिला समाज के सामने अब यह चुनौती है कि कैसे अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाते हुए समय के साथ बदलाव को अपनाया जाए। बुजुर्ग पीढ़ी चाहती है कि परंपराएं वैसी ही रहें जैसी सदियों से चली आ रही हैं, जबकि युवा पीढ़ी इनमें सुधार चाहती है।

कुछ परिवार अब मध्यम मार्ग अपना रहे हैं। वे उत्सव तो मनाते हैं लेकिन उसमें से भेदभावपूर्ण तत्वों को हटा देते हैं। जैसे पुरुष और महिलाएं दोनों साथ मिलकर व्रत रखते हैं और चाँद देखते हैं।

शिक्षित और प्रगतिशील लोग अब इन उत्सवों का वैज्ञानिक और तार्किक आधार खोजने की कोशिश करते हैं। वे मानते हैं कि अगर कोई परंपरा सभी के लिए हानिकारक है तो उसे बदलना जरूरी है, लेकिन अगर वह केवल रूढ़िवादिता है तो उसमें सुधार किया जा सकता है।

उत्सव के दौरान होने वाली सामाजिक गतिविधियों का प्रभाव

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पारिवारिक रिश्तों में मजबूती

चाँद उत्सव के दौरान मिथिला के परिवार एक साथ आते हैं और तैयारियों में शामिल होते हैं। दादी-नानी अपनी पुरानी कहानियां साझा करती हैं, जबकि युवा पीढ़ी उनसे पारंपरिक व्यंजनों की विधि सीखती है। यह समय विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि व्यस्त जीवनशैली में परिवारजन शायद ही कभी इतना गुणवत्तापूर्ण समय एक साथ बिताते हैं।

उत्सव की तैयारी में हर सदस्य की भागीदारी होती है। बच्चे रंगोली बनाते हैं, महिलाएं मिठाइयां तैयार करती हैं और पुरुष घर की सफाई और सजावट में योगदान देते हैं। यह सामूहिक प्रयास परिवारिक बंधन को और भी मजबूत बनाता है। दूर रहने वाले रिश्तेदार भी इस अवसर पर घर लौटते हैं, जिससे पारिवारिक मेल-जोल में वृद्धि होती है।

सामुदायिक एकता का विकास

मिथिला में चाँद उत्सव केवल व्यक्तिगत या पारिवारिक उत्सव नहीं है, बल्कि पूरा समुदाय इसमें शामिल होता है। गांव के सभी घरों में उत्सव की तैयारी एक साथ शुरू होती है और लोग एक-दूसरे की मदद करते हैं। जो परिवार आर्थिक रूप से कमजोर हैं, समुदाय के अन्य सदस्य उनकी सहायता करते हैं।

उत्सव के दिन सामुदायिक भोज का आयोजन होता है जहां जाति, वर्ग या आर्थिक स्थिति की परवाह किए बिना सभी एक साथ बैठकर भोजन करते हैं। यह परंपरा सामाजिक समानता और भाईचारे की भावना को बढ़ावा देती है। गांव के बुजुर्ग युवाओं को सांस्कृतिक मूल्यों की शिक्षा देते हैं, जिससे पीढ़ियों के बीच का अंतर कम होता है।

स्थानीय कलाकार अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हैं, जिससे पारंपरिक कलाओं का संरक्षण होता है। महिलाएं सामूहिक गायन में भाग लेती हैं और पुरुष पारंपरिक वाद्य यंत्र बजाते हैं।

स्थानीय अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक असर

चाँद उत्सव के आसपास स्थानीय बाजारों में चहल-पहल बढ़ जाती है। मिठाई की दुकानों, कपड़े की दुकानों और पूजा सामग्री बेचने वालों का कारोबार तेजी से बढ़ता है। स्थानीय कारीगर और शिल्पकार अपने हस्तनिर्मित उत्पादों की बिक्री कर अच्छी आमदनी करते हैं।

व्यापार क्षेत्रउत्सव के दौरान वृद्धि
मिठाई व्यापार200-300%
वस्त्र व्यापार150-250%
पूजा सामग्री300-400%
स्थानीय शिल्प100-200%

गांव की महिलाएं अपने घर का बना खाना, अचार और मिठाइयां बेचकर अतिरिक्त आमदनी करती हैं। यह उन्हें आर्थिक स्वतंत्रता प्रदान करता है और घरेलू बजट में योगदान देता है। उत्सव के दौरान रोजगार के अस्थायी अवसर भी मिलते हैं, जैसे सफाई, खाना पकाना, सजावट आदि।

परिवहन सेवाओं की मांग भी बढ़ जाती है क्योंकि दूर से आने वाले रिश्तेदार और श्रद्धालु स्थानीय ऑटो, टैक्सी और बस सेवाओं का उपयोग करते हैं। यह स्थानीय परिवहन व्यापारियों के लिए आय का अच्छा स्रोत बनता है।

Chandra: मिथिला के कलंकित चाँद उत्सव के पीछे छिपी अनसुनी कहानियाँ

मिथिला का चाँद उत्सव आज भी अपने साथ कई सवाल और विरोधाभास लेकर चलता है। इस उत्सव की गहराई में जाकर हमें पता चलता है कि जो बातें लोग कहते रहे हैं, जरूरी नहीं कि वो सच हों। पुराने जमाने की परंपराओं और आज की सोच के बीच एक खाई दिखती है, जो धीरे-धीरे भरती जा रही है।

वक्त के साथ लोगों की सोच बदल रही है और वे इन त्योहारों को एक नए नजरिए से देखने लगे हैं। अगर हम सच में अपनी संस्कृति को आगे बढ़ाना चाहते हैं, तो हमें इन उत्सवों के सच को समझना होगा और अंधविश्वासों से बचकर इन्हें मनाना होगा। मिथिला की इस खूबसूरत परंपरा को सही मायने में जिंदा रखने के लिए हम सबको मिलकर एक संतुलित रास्ता निकालना होगा।

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Chauth Chandra: कलंकित चांद को क्यों पूजते है मिथिला के लोग, चौरचन पर क्या है खास परंपरा

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